Wednesday, July 17, 2013

बेखबर थी मैं तो खुद से भी............... तूने मुझे मुझ से मिला दिया



कैसा था वो ख्वाब जो इन आँखों में सजा दिया
रोक भी नहीं पाता खुद को दिल जादू ये कैसा चला दिया

दिल के झरोंखे......... से   दस्तक दी तूने
और प्यार का एक  दीप............. जला दिया 
बेखबर थी मैं तो  खुद से भी  तूने मुझे मुझ से मिला दिया 
प्यार के एहसास ने तेरे मेरा रोम रोम जगा दिया 
बरसो तक रहा जो  सूना मेरा जहां उसे अपनी खुशबू से महका दिया 
इश्क के एहसास से... भी रहा था बेखबर जो दिल
प्यार का सैलाब..... उसमे तूने जगा दिया 
बेखबर थी मैं तो  खुद से भी  तूने मुझे मुझ से मिला दिया  

ऐ खुदा नहीं कोई शिकवा तुझसे
माफ़ करना गर कोई  हुई हो खता मुझसे
माँगा था किस्मत में मैंने तो बस अक्स तेरा
पर तूने तो खुद को ही मेरा  मुकददर बना दिया  
बेखबर थी मैं तो  खुद से भी  तूने मुझे मुझ से मिला दिया 

ख़्वाबों में तेरे तो मैं खो गयी
ऐसी दीवानी तेरे इश्क में रम गयी
अब तो आ जाये मौत भी तो ग़म नहीं
जन्नत का सफ़र  तो तूने जीते जी करा दिया
बेखबर थी मैं तो  खुद से भी  तूने मुझे मुझ से मिला दिया

नीलम.....

है छोटी सी ख्वाहिश मेरी... एक जहां अपना बनाऊं.....

 
 
 
बनकर  एक  आज़ाद  पंछी आसमान  मे  उडती  जाऊं
चाहत    के  मैं  पंख  लगाकर  संग  घटा  के  बहती  जाऊं
लहर  बनकर  मैं  भी  आशा   की  लहराती  जाऊं  लहराती  जाऊं 
है  छोटी  सी  ख्वाहिश  मेरी ....  और  छोटा  सा  सपना ...
हर  दिल  में  बस  जाऊं  ऐसे  जैसे  हो  मेरा  अपना .....
 
शीतल  जल  की  धरा  बनकर  हर  दिल  से  नफरत  को  मिटाऊं
झोंका   बनकर  मस्त  हवा  का  डगर   डगर  खुशियाँ  बिखराउन
आँचल  बन  मै भी   ममता   का  एक  नया   कुटुंब  बनाऊं
है  छोटी  सी  ख्वाहिश मेरी... एक जहां अपना बनाऊं
गुलशन बन मैं भी आशा का.. हर जन की बघिया महकाऊं .
बनकर  मैं  भी  चंदा  की  चांदनी  हर  मन  को शीतल बनाऊं
 
 
बनकर  सूरज  की  लालिमा  हर  आँगन  उज्लाऊं
बनकर  मैं   भी  उम्मीद  का  दिया   हर  चेहरे  से  ग़म  को  चुराऊं .
है  छोटी  सी  ख्वाहिश  मेरी ....  और  छोटा  सा  सपना ...
हर  दिल  में  बस  जाऊं  ऐसे  जैसे  हो  मेरा  अपना
बनकर  कोयल  की  मिठास  हर  वाणी   में   घुल   जाऊं
रेशम  की  डोरी  मैं  बनकर  हर  रिश्ते   से  बंधती  जाऊं
मैं  भी  बनकर  एक  अजस्र  धरा  हर  दिल  में  बस  प्रेम  जगाऊं 
है  छोटी  सी  ख्वाहिश मेरी....  एक जहां अपना बनाऊं...
गुलशन बन मैं भी आशा का हर जन की बघिया महकाऊं 

ऐसा क्यूँ होता



तनहा यूँही चलते चलते
दस्तक कर गया एक सवाल!
क्या कभी सोचा किसी ने
ऐसा होगा मेरे देश का हाल !
मानो जैसे बुझ ही गयी
थी जली जो पराक्रम की लौ!
थम गयी वो आंधी
और गयी कहीं वो क्रांति सो!
 
निन्द्रगास्त हो गया क्यूँ
आज सबका  स्वाभिमान है!
खो गया इस भीड़ में कहीं
मानवता का भी ज्ञान है !
एक आवाज़ में भी कभी
उठ जाता एक संग्राम था!
मानो जैसे सशक्तता का
मिला सभी को वरदान सा था!
 
होता जिस देश कभी 
शिष्टाचारों का बसेरा था !
ऐसा ही पूर्णकालिक होता 
वो भारत देश मेरा था !
मात पिता का जिस देश में
होता इष्ट बराबर स्थान था !
बनकर आज रह गए वो ही
महत्त्वहीन कोई सामान सा !
 
परवर्ती के  शिक्षण की खातिर
पूँजी लुटाये जाते हैं !
फिर वृधावस्था में  वो ही 
हर दिन ठुकराए जाते हैं!
सब देख के ये मन रोता है 
क्यूँ आज मेरा जग सोता है !
है सक्षम हर जन यहाँ
फिर भी ऐसा क्यूँ होता है !
 
मिलता था हर नारी को
कभी एक देवी जैसा मान !
आज रौंदी जाती कुचली जाती 
एक गलित कोंपल के सामान !
मस्तक पर धर आँचल 
इक ओर सुसज्जित होती है!
और कहीं लाखों की भीड़ में 
सरेआम वो लज्जित होती हैं !
 
जिस देश में हर बेटी 
बाबुल का आँगन  महकाती है !
क्यूँ फिर वो ही वधु बन
हर  दिन सुलगाई जाती है !
सब देख के ये मन रोता है 
क्यूँ आज मेरा जग सोता है !
है सक्षम  हर जन यहाँ 
फिर भी ऐसा क्यूँ होता है !
 

नीलम